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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 1 
ययाति किसी सम्राट का नाम है , हमने ऐसा ही पढ़ा सुना है । दरअसल ययाति नाम है अनंत कामनाओं का । भोग विलास की संस्कृति का । इच्छाओं के सुलगते हुए दावानल का । प्यास के असीम मरुस्थल का । चाहतों के आसमानों का । क्या भोग विलास से किसी की तृप्ति हुई है आज तक ? ययाति सारी जिंदगी भोगों को भोगकर भी अतृप्त ही रहा था । तब ऐसा लगता है कि हमारा लक्ष्य भोग तो नहीं हो सकते हैं । भोगों से कभी तृप्ति नहीं मिल सकती है । तृप्ति तो केवल भगवद्भक्ति से ही मिल सकती है । 

देवयानी सम्राट ययाति की पत्नी थी । पर क्या यही पहचान है उसकी ? वह दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री थी । क्या इतना परिचय काफी नहीं है उसकी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए ? सौन्दर्य तो जैसे सावन की हरियाली की तरह झूम कर आया था उसके द्वार पर । क्या अलौकिक सौंदर्य, असाधारण शक्ति और एक सम्राट की पटरानी होने के गौरव ने उसे अहंकारी तो नहीं बना दिया था ? या इसके अतिरिक्त और भी कुछ थी वह ? क्या उसने अपने पति से प्रेम किया था ? नहीं , प्रेम तो उसने केवल कच से ही किया था । तो फिर वह ययाति की पत्नी क्यों बनी ? ययाति से उसके दो पुत्र भी उत्पन्न हुए थे । क्या वह अतृप्त प्रेम के कारण एक प्यासी नदी की तरह सदैव प्यासी ही रही ? ययाति इच्छाओं के भंवर में क्या इसीलिए भटकता रहा जिंदगी भर ? वस्तुत: जब हम देवयानी की बात करते हैं तो हमें ध्यान रखना चाहिए कि देवयानी एक स्त्री का नाम नहीं है अपितु देवयानी नाम है अतृप्त प्रेम का । पहला प्रेम और वह भी किशोरावस्था का ! भुलाये से भी नहीं भूला जा सकता है उसे । यदि किसी ऐसी लड़की जिसने विवाह से पूर्व किसी नवयुवक से प्रेम किया है और उसे प्रेम का प्रतिदान प्राप्त नहीं हुआ हो तो ऐसी लड़की एक रिक्त पात्र की तरह होती है । वह अपने पति को न तो प्रेम कर सकती है और न ही उसे सुख पहुंचा सकती है इसलिए ऐसी लड़की का पति ययाति की तरह कामनाओं के बीयाबान जंगल में विचरण करता रहता है । वह वासना को ही प्रेम समझ लेता है । 

इस कथानक में एक चरित्र और है । और वह है सम्राट नहुष का । नहुष सम्राट ययाति के पिता थे । वास्तव में नहुष नाम है प्रभुता पाकर मदमस्त हुई प्रवृत्ति का । "प्रभुता पाय मद काऊ न होई" यह कहावत हमने बहुत बार सुनी होगी मगर नहुष ने इसे चरितार्थ करके दिखाया है । जरा सी सत्ता मिलते ही मनुष्य अभिमान के आसमान में इस तरह छलांग लगाता है कि उसे पृथ्वी धूल के एक कण के बराबर लगने लगती है । वह ऐसे ऐसे कृत्य कर बैठता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है । नहुष के रूप में हम ऐसी ही कथा पढेंगे । 

शर्मिष्ठा के वर्णन के बिना यह कथा अधूरी है । शर्मिष्ठा एक राजकुमारी का नाम नहीं है अपितु नाम है धैर्य की पराकाष्ठा का । संयम का । त्याग और बलिदान का । भाग्य के खेल का जिसने एक राजकुमारी को एक दासी बना दिया था । जितने दुख शर्मिष्ठा ने उठाये थे उतने तो कुंती ने भी नहीं उठाये थे । कुंती के पास तो पांच महान पुत्र और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण थे मगर शर्मिष्ठा के पास तो कुछ नहीं था सिवाय शील स्वभाव और संघर्ष करने वाले साहस के । कुल मिलाकर इन सब गुणों के कारण यह कथा विलक्षण हो गई है । इस कथा से हमें जीवन के संबध में अनेक अनुभवों की प्राप्ति होती है । तो आइये कथा शुरू करते हैं । 

महाभारत काल से पूर्व कुरूकुल में एक राजा हुए थे जिनका नाम था नहुष । नहुष न केवल वीर बल्कि धर्म परायण , प्रजा पालक राजा थे । सौन्दर्य की खान थे । उन्होंने अपने पुरुषार्थ से समस्त विश्व को अपने अधीन कर लिया था । उनकी यशोगाथा संपूर्ण विश्व में गाई जाने लगी । 

उन दिनों देवता और दानवों में युद्ध होता रहता था । कभी देवता दानवों को पराजित कर देते थे और कभी दानव देवताओं को पराजित करके स्वर्ग लोक कर आधिपत्य स्थापित कर लेते थे । 

दानवों का एक राजा वृत्रासुर भयंकर योद्धा था । उसने तीनों लोकों पर आधिपत्य स्थापित कर लिया । देवताओं को स्वर्ग लोक छोड़कर भागना पड़ा और पर्वतों, कंदराओं में छुपकर रहना पड़ा । तब इंद्र को कहा गया कि वह यदि महर्षि दाधीच की अस्थियों का एक वज्र बनाये तब वृत्रासुर का वध किया जा सकता है । इंद्र ने ऐसा ही किया । उसने महर्षि दाधीच से अपनी अस्थियों को दान देने की याचना की । उदारमना महर्षि ने जन कल्याण को ध्यान में रखते हुए अपने शरीर का त्याग कर दिया और अस्थियां दान में दे दीं । इन्द्र ने उन अस्थियों से वज्र बनवाया और उस वज्र से वृत्रासुर का वध कर दिया । इससे स्वर्ग लोक पर देवताओं का फिर से आधिपत्य हो गया । 

वृत्रासुर की हत्या से इन्द्र पर ब्रह्म हत्या  का पाप लग गया । ब्राह्मणों के कोप से बचने के लिए वह स्वर्ग लोक त्याग कर भाग खड़ा हुआ और एक सरोवर में छुप गया । इन्द्र के नहीं होने से स्वर्ग लोक रिक्त हो गया । बिना राजा के प्रजा उसी तरह अनाथ हो जाती है जैसे बिना माता पिता के बच्चे अनाथ हो जाते हैं । तब देवताओं की एक बैठक हुई जिसमें देवताओं के गुरू ब्रहस्पति भी उपस्थित थे । 

गुरू ब्रहस्पति ने कहा कि देवराज इन्द्र के बिना स्वर्ग लोक उसी तरह प्रतीत होता है जिस तरह पति विहीन पत्नी प्रतीत होती है । स्वर्ग लोक को कभी रिक्त नहीं छोड़ना चाहिए । जिस तरह एक स्त्री को , धन को अकेला छोड़ दिया जाता है तब उन पर किसी अन्य का अधिकार होने की संभावना बहुत अधिक हो जाती है । इसलिए स्वर्ग लोक में इन्द्र के आसन पर देवराज इन्द्र की अनुपस्थिति में अस्थाई रूप से किसी योग्य व्यक्ति को बैठा देना चाहिए" 

गुरू ब्रहस्पति के वचन सुनकर एकदम से खलबली मच गई  । "कौन है जो इन्द्र के आसन पर विराजमान होगा ? सबके मन में उस आसन पर बैठने की इच्छा उत्पन्न हो गई । तब नारद जी सम्राट नहुष को लेकर स्वर्ग लोक आये और बोले 
"ये हैं चक्रवर्ती सम्राट नहुष । इन्होंने अपने पुरुषार्थ से संपूर्ण जगत को जीत लिया है । इसलिए ये इन्द्रासन के सर्वथा अधिकारी हैं "। 

नारद जी की बात का सभी ने समर्थन कर दिया । इस प्रकार स्वर्ग लोक के अस्थाई इन्द्र सम्राट नहुष बन गये । स्वर्ग लोक का ऐश्वर्य देखकर सम्राट नहुष की आंखें फटी की फटी रह गईं । मेंढक जब तक कुंऐं में पड़ा रहता है , तब तक कुंऐं को ही वह सारी दुनिया मान लेता है और उस दुनिया का वह खुद को बेताज बादशाह मानने लग जाता है । लेकिन जब वह सागर में जाता है तो उसकी आंखें चुंधिया जाती हैं । यही दशा सम्राट नहुष की हुई । 

स्वर्ग लोक के महल , उद्यान , खान पान , सोमरस,  वस्त्र आदि सब कुछ दिव्य थे इसलिए नहुष में अभिमान जागृत हो गया । वह भूल गया था कि वह यहां अस्थाई रूप से राजा बनाया गया है न कि स्थाई रूप से । फिर भी उसे स्वर्ग लोक के ऐश्वर्यों के कारण अभिमान उत्पन्न हो गया और वह स्वयं को वास्तविक इन्द्र समझने लगा । "प्रभुता पाय मद काऊ न होई" शायद यह कहावत राजा नहुष के लिए ही बनी है । नहुष अपने दंभ में अनेक पाप कर्म करने लगा । 

स्वर्ग लोक में एक से बढ़कर एक सुंदर अप्सराऐं हैं और वे सब सबके "उपभोग" के लिए उपलब्ध हैं । सभी अप्सराऐं सौन्दर्य में एक से बढकर एक हैं । उन्हें देखकर नहुष पागल जैसा हो गया । क्या मेनका और क्या रंभा  ? क्या उर्वशी और क्या घृताची ? सम्राट नहुष सभी अप्सराओं के साथ "रमण" करने लगा । उसकी भोग विलासी प्रवृत्ति से अप्सराऐं तंग आ गईं । तब उन्होंने एक उपाय सोचा । 

एक दिन जब नहुष मेनका के साथ रमण कर रहा था तब मेनका ने पूछा "महाराज, मैंने कभी आपके महल में इन्द्राणी  को नहीं देखा है । क्या वे कहीं और चली गई  हैं" ? 

इन्द्राणी का नाम सुनकर नहुष को झटका सा लगा । इन्द्राणी तो एक भी रात उसके पास नहीं आई । उसने तो उसे देखा तक नहीं है ? उसके मन में इन्द्राणी को देखने की इच्छा पनपने लगी । 

"क्या सोचने लगे महाराज ? सोच रहे होंगे कि पता नहीं कैसी होंगीं वे ? एक बात सत्य कहती हूं कि इण्द्राणी के जैसी सुन्दर स्त्री संपूर्ण विश्व में कोई नही है । अगर आप उसे एक बार देखेंगे तो फिर आप हमको भूल जायेंगे " । मेनका ने चाल चल दी थी और अब नहुष को सोचना पड़ रहा था । नहुष का मन अब पूरी तरह इण्द्राणी अर्थात शची में रम गया था । 

नहुष ने मेनका को परे धकेल दिया था । वह अपने वस्त्र पहन कर इन्द्राणी के भवन की ओर चल दिया । मेनका खुश है रही थी कि अब उसे और अन्य अप्सराओं को नहुष की सेवा में नहीं आना पड़ेगा । जब यह समाचार समस्त अप्सराओं ने सुना तो वे बहुत प्रसन्न हुईं । 

सम्राट नहुष सीधा इण्द्राणी के महल में गया । तब शची श्रंगार कर रही थी । सम्राट को आया देख वह उनके सामने उपस्थित हो गई । शची एक अनुपम सुंदरी थी । उसके जैसी रूपमती संपूर्ण विश्व में और कोई नहीं थी । नहुष उसे देखकर आश्चर्य चकित रह गया । उसे स्वयं पर बहुत ग्लानि हो रही थी कि रबड़ी छोड़कर गुड़ खा रहा था वह अब तक ।लेकिन कोई बात नहीं । अब भी देर नहीं हुई है । अब वह शची के साथ रमण करेगा । 

शची नहुष को देखकर बोली "बैठिए, सम्राट नहुष । आज कोई आवश्यक कार्य आ गया है क्या जो आपका मेरे महल में अचानक आना हुआ ? मेरे योग्य कोई कार्य हो तो कृपया बतायें अस्थाई स्वर्गाधिपति" । 

शची के इन वचनों से नहुष तिलमिला गया । उसे "अस्थाई स्वर्गाधिपति" शब्द बहुत बुरा लगा । अस्थाई है तो क्या हुआ  , है तो स्वर्गाधिपति ही ना ? वह गुस्से सो बोला "आपके महल से क्या तात्पर्य है आपका ? क्या आपका महल इस स्वर्ग लोक की सीमा से बाहर है" ? 

नहुष का क्रोधित चेहरा देखकर शची सहम गई लेकिन वह एक महान पतिव्रता स्त्री थी । पतिव्रता स्त्री किसी से भी भयभीत नहीं होती हैं । इसलिए शची भी निर्भय होकर बोली "मैं एक पतिव्रता स्त्री हूं सम्राट और एक पतिव्रता के महल में बिना उसकी अनुमति के किसी को भी आने की अनुमति नहीं होती है , स्वयं भगवान को भी नहीं । इसलिए भविष्य में यह बात ध्यान रखना । अब कृपया कर यह बतायें कि आपने यहां आने का कष्ट कैसे किया" ? 

नहुष समझ चुका था कि शची न केवल बुद्धिमान है अपितु साहसी भी है । वह बोला "मैं चूंकि स्वर्ग लोक का अधिपति हूं और इन्द्र के आसन पर विराजमान हूं इसलिए स्वर्ग लोक की समस्त वस्तुओं और स्त्रियों का मैं स्वामी हूं । तुम इण्द्राणी हो इसलिए मेरी पत्नी हो । मैं तुम्हारे महल में तुम्हारे साथ मैथुन करने की इच्छा लेकर उपस्थित हुआ हूं । इसलिए मेरा उचित आदर सत्कार करो और आज की रात मेरे साथ समागम करके मुझे तृप्त करो और स्वयं भी तृप्त होओ । तुम्हें भी काम सुख प्राप्त हुए बहुत दिन हो गये हैं । आज अपनी सारी इच्छाऐं मुझसे पूर्ण कर लो" । नहुष ने शची का हाथ पकड़ते हुए कहा । 

"छि : छि : छि :" । शची ने नहुष का हाथ झिड़कते हुए कहा "ये कैसी बातें कर रहे हो सम्राट ? एक पतिव्रता स्त्री से ऐसी अनुचित बातें आपको नहीं करनी चाहिए । आप यहां से चले जाइये । मैं मन, वचन और कर्म से केवल अपने पति की हूं और स्वप्न में भी किसी पर पुरुष का स्मरण नहीं कर सकती हूं" । शची दूर हटते हुए बोली । 

"मैं तुम्हारा पति ही हूं प्रिये । मैं इन्द्र हूं और तुम इन्द्र की पत्नी । इसलिए मेरी पत्नी हुई ना ? देखो , अब और मत तरसाओ । मैं कामाग्नि में दग्ध हो रहा हूं । हे सुन्दरी, मेरे नजदीक आओ और मेरे साथ संसर्ग करो" । नहुष बेशर्मी के साथ बोला । 

शची को अहसास हो गया था कि नहुष पर कामदेव ने आक्रमण कर रखा है और यह काम पिपासु होकर ऐसा आचरण कर रहा है । उसने नहुष रूपी बला को टालने के लिए युक्ति से काम लिया । वह कुछ सोचकर बोली "सम्राट, मैं आपकी अंकशायनी बन सकती हूं अगर आप मेरी कामना पूर्ण कर दें तो" ? 
"क्या कामना है आपकी देवि" ? नहुष प्रसन्न होते हुए बोला । "बहुत छोटी सी कामना है सम्राट । आप मेरे महल में उस पालकी पर पधारें जिसे सप्त ऋषि ढोकर लायें । फिर मैं आपके साथ समागम भी कर लूंगी" । शची ने सोचा कि न तो नौ मन तेल होगा और न ही राधा नाचेगी  । वह मन ही मन प्रसन्न हो रही थी । 

नहुष तो मदान्ध था । स्वर्ग लोक का अधिपति होने का गुरूर उसके सिर चढकर बोल रहा था । तिस पर शची के सौन्दर्य और उसके अवयवों की पुष्टता ने उसे कामान्ध बना दिया था । वह बोला "आपकी कामना अवश्य पूरी होगी देवि । मैं अभी पालकी पर आता हूं तब तक तुम "मिलन" की तैयारी करो" । कहकर नहुष चला गया । 

अपने कक्ष में पहुंच कर नहुष ने अपने परिचारकों से सप्त ऋषियों को बुलवाने को कहा । सप्त ऋषि आधी रात को भी दौड़े दौड़े चले आये । तब एक पालकी मंगवाई और नहुष उसमें बैठ गया । तब उसने सप्त ऋषियों को आदेश दिया कि वे उसकी पालकी उठायें और शीघ्रता से शची के महल की ओर चलें । 

सप्त ऋषियों ने ऐसा ही किया । वे पालकी उठाना जानते नहीं थे लेकिन फिर भी उन्होंने आज्ञा का पालन किया । उनके पैर लड़खड़ा रहे थे और इस कारण वे धीरे धीरे चल रहे थे । इस पर नहुष नाराज हो गया और उन्हें डांटते हुए बोला "तुम्हारे पैरों में मेंहदी लगी हुई है क्या जो इस तरह मरे मरे से चल रहे हो । सर्प सर्प । यानि तेज तेज चलो" । 

उसके दुर्वचन सुनकर ऋषियों को क्रोध आ गया । अगस्त्य ऋषि फुंफकार उठे और उसे शाप देते हुए बोले "दुष्ट राजन ! तुमने हम सप्त ऋषियों से पालकी उठवाई है और 'सर्प सर्प ' बोला है । मैं तुझे शाप देता हूं कि तू इसी वक्त सर्प यानि सांप हो जा"   

और राजा नहुष उसी समय एक भयंकर अजगर बन गये । 
उधर इन्द्र का ब्रह्म हत्या वाला पाप उसकी तपस्या से धुल गया और वह वापस स्वर्ग लोक में आ गया । 

नहुष की इस अधोगति का समाचार तीनों लोकों में पहुंच गया । नहुष की जगह उसके पुत्र को सम्राट बनाने की तैयारी होने लगी । नहुष का बड़ा पुत्र यति पहले ही वन में चला गया था । उसके दूसरे पुत्र ययाति को सम्राट बना दिया गया । 

क्रमश : 

श्री हरि 
12.4.23 


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3 Comments

Punam verma

13-Apr-2023 09:22 AM

Very nice

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Alka jain

13-Apr-2023 09:20 AM

Nice 👌

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Abhinav ji

13-Apr-2023 08:39 AM

Very nice 👍

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